के. एन. सिंह: हिंदी सिनेमा के पहले सशक्त और प्रभावशाली खलनायक

के. एन. सिंह हिंदी सिनेमा के पहले सशक्त खलनायकों में गिने जाते हैं। उनका पूरा नाम कृष्ण निरंजन सिंह था और वे एक शाही परिवार से थे। इनके पिता चंडी प्रसाद सिंह  एक जो एक प्रतिष्ठित भारतीय राजकुमार और जाने-माने क्रिमिनल लॉएर थे।शानदार व्यक्तित्व, ऊँचा कद, गंभीर आवाज़ और संयमित अभिनय शैली ने उन्हें सिनेमा के विशिष्ट खलनायक के रूप में स्थापित किया जिन्होंने अपनी नजर भर से दर्शकों के मन में खौफ भर दिया। जेंटलमैन की तरह रहने वाले केएन सिंह चीखे-चिल्लाए बिना ही केवल आंखों की हलचल से लोगों में भय पैदा कर देते थे।

K N Singh1936 में आई फ़िल्म Sunehra Sansar (1936) से उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की, लेकिन विद्यापति (1937), “Baghban”(1938), सीआईडी (1956), हावड़ा ब्रिज (1958), और जैसी फ़िल्मों में निभाए गए खलनायकी किरदारों ने उन्हें अमर बना दिया। वे क्रूरता को भी शालीनता और बौद्धिकता के साथ पेश करते थे। उनका खलनायक न तो ऊँची आवाज़ में चिल्लाता था, न ही हिंसक हावभाव दिखाता था, बल्कि ठंडे दिमाग और सधे हुए संवादों से डर पैदा करता था। उनकी खास बात यह थी कि वे नकारात्मक भूमिका में भी गरिमा बनाए रखते थे। के. एन. सिंह ने खलनायकी को एक नई पहचान दी। केएन सिंह ने बॉलीवुड में लंबे समय तक काम किया है। साल 1936 से 1980 के दशक तक करीब 200 फिल्मों में उन्होंने काम किया।

जन्म और पारिवारिक स्थिति

के. एन. सिंह का जन्म 1 सितंबर, 1908 को देहरादून (उत्तराखंड) में हुआ था।  के. एन. सिंह की पत्नी प्रवीण पाल भी सफल चरित्र अभिनेत्री थीं। उनके पिता कुंवर लक्ष्मण सिंह एक प्रतिष्ठित वकील थे और उस समय के राजा-महाराजाओं के दरबार में वकालत करते थे। उनके परिवार का रईसी और पढ़ाई-लिखाई से गहरा नाता था। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनके छोटे भाई विक्रम सिंह थे, जो मशहूर अंग्रेज़ी पत्रिका फ़िल्मफ़ेयर के कई साल तक संपादक रहे। उनके पुत्र पुष्कर को के.एन. सिंह दंपति ने अपना पुत्र माना था। ये अपने 6 भाई-बहिनों में सबसे बड़े थे।

बचपन और शिक्षा

के. एन. सिंह का बचपन सुविधाओं और अनुशासन के बीच बीता। उन्हें बचपन से ही अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी भाषाओं पर अच्छी पकड़ थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा देहरादून में हुई और आगे की पढ़ाई लाहौर और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की। वे पढ़ाई में अच्छे थे, लेकिन खेलों में उनकी विशेष रुचि थी। खासकर एथलेटिक्स और शॉट पुट में उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर तक बनी।

बर्लिन ओलंपिक के लिए चुने गए

के एन सिंह एथलीट भी थे और अच्छी खासी वेट लिफ्टिंग भी किया करते थे। अपनी ऊर्जा को खेलों की ओर मोड़ते हुए के.एन. सिंह ने भाला फेंक और गोला फेंक में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। 1936 में बर्लिन ओलंपिक के लिए भारतीय दल में उनका चयन हुआ था। यह वही ओलंपिक था जिसमें हिटलर मौजूद था और महान धावक जेसी ओवेन्स ने इतिहास रचा था, लेकिन बहन की बीमारी और पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण के. एन. सिंह इस ओलंपिक में भाग नहीं ले सके। वहीं, इनका मन आर्मी ज्वाइन करने का भी था। ये सारे प्लान और खेलकूद उस वक्त बदल गए जब उनकी किस्मत उन्हें फिल्मों में ले आई।

परिवार और जिम्मेदारियाँ

के. एन. सिंह के परिवार में कई सदस्य शिक्षित और सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित थे। हालांकि वे एक रईस खानदान से थे, फिर भी उनमें कभी घमंड नहीं था। वे अपने माता-पिता का बहुत सम्मान करते थे और परिवार की प्रतिष्ठा उनके लिए सर्वोपरि थी। उनके पिता चाहते थे कि  के. एन. सिंह  जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़े हों। उन्होंने कई काम किए, कभी लाहौर जा कर प्रिंटिग प्रेस स्थापित की, तो  कभी राजों रजवाड़ों को पालने के लिये जंगली जानवर सप्लाई किए तो कभी चाय बागान में काम करने वालों के लिए खास  तरह के जूते बनवाए, लेकिन के. एन. सिंह का किसी काम में मन नहीं लगता था, पर किस्मत उन्हें फिल्मों की दुनिया की ओर खींच लाई।

कुंदन लाल सहगल से भेंट

के. एन. सिंह की कुंदन लाल सहगल से भेंट एक यादगार घटना थी। जब सिंह कलकत्ता में थे, तब उन्होंने न्यू थियेटर्स स्टूडियो में सहगल को पहली बार देखा। सहगल का व्यक्तित्व और गायकी ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया। सहगल की सादगी और मृदुभाषिता ने सिंह को बेहद आकर्षित किया। इस मुलाकात ने के. एन. सिंह को सिनेमा की दुनिया में कदम रखने की प्रेरणा दी। सहगल जैसे कलाकार से मिलना उनके लिए सौभाग्य की बात थी, और उन्होंने इसे अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण घड़ी माना।

वकालत से हो गया मोहभंग

अपने पिता के सलाह पर के  एन सिंह ने वकील बनने की सोची। के एन सिंह लंदन जाकर बैरिस्टर की पढाई करना चाह रहे थे। एक बार वह अपने पिता के साथ कोर्ट गए। कोर्ट में बैठकर उन्होंने देखा कि एक मुजरिम जिसने कत्ल किया था उसे बचा लिया गया। उस मुजरिम को बचाने वाला कोई और नहीं बल्कि उनके पिता चंडी प्रसाद सिंह ही थे। यह अन्याय देखकर के एन सिंह का वकालत से मोह भंग हो गया।

कोलकाता में पृथ्वीराज कपूर से मुलाकात, बदल गई जिंदगी


के. एन. सिंह को फिल्मों में आने का मौका संयोग से मिला। एक बार वे कलकत्ता (अब कोलकाता) में अपने बीमार मित्र की मदद के लिए गए थे, जो न्यू थिएटर्स स्टूडियो में कार्यरत थे। उनके कोलकाता जाने की बात सुनकर देहरादून में उनके एक दोस्त नित्यानंन्द खन्ना ने उन्हें पृथ्वीराज कपूर के नाम एक पत्र दिया। पृथ्वीराज उन दिनों कोलकाता में रह कर फिल्मों  में व्यस्त थे और नित्यानंद उनके फुफेरे भाई थे।  वहीं उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व और गंभीर आवाज़ को देखकर एक निर्देशक ने उन्हें फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव दिया। यहीं से उनका फिल्मों की दुनिया में प्रवेश हुआ।

शुरुआती करियर, फिल्मों की ओर रुख और फिल्मों में पहला ब्रेक

कोलकाता जाने के बाद पृथ्वीराज कपूर ने के. एन. सिंह की मुलाकात निर्देशक देबकी बोस से करवाई। देबकी बोस उन दिनों कोलकाता में न्यू थियेटर्स की फिल्में निर्देशित करते थे।देबकी बोस ने के एन सिंह को अपनी फिल्म सुनहरा संसार में छोटा सा किरदार निभाने का मौका दिया। यह फिल्म 1936 में रिलीज हुई थी।

के एन सिंह ने कलकत्ता में 4 और फिल्में कीं। अपनी दूसरी फिल्म हवाई डाकू में उन्होंने अपने जीवन में पहली और आखिरी बार नायक की भूमिका निभाई! उन्होंने न्यू थियेटर्स की फिल्म विद्यापति (1937), जिसका निर्देशन भी बोस ने ही किया था, और अनाथ आश्रम (1937) में भी भूमिकाएँ निभाईं, जहाँ खलनायक के रूप में उन्हें पहली बार ‘स्क्रीन डेथ’ का अनुभव हुआ। मिलाप (1937) के बाद, जिसमें उन्होंने एक अभियोजन पक्ष के वकील की भूमिका निभाई, एआर कारदार सिंह को बॉम्बे ले आए। वहाँ उन्होंने कारदार के साथ अपनी प्रमुख सफल फिल्म बागबान में काम किया। सिंह बागबान को अपनी अब तक की सबसे बेहतरीन भूमिका मानते हैं, जहाँ उन्होंने एक दुष्ट दिमाग वाले इंजीनियर की भूमिका निभाई थी जो नायिका को रिझाता है। इस भूमिका को याद करते हुए उन्होंने एक बार कहा था, “यह एक खलनायक की भूमिका थी। फिल्म में पहचान उन्हें 1938 में आई फिल्म “Baghban” से मिली, उस के बाद के एन सिंह ने  न्यू थियेटर्स में 150 के मासिक वेतन पर फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया।

कोलकाता में की गई फिल्मों  में उनकी अदाकारी से चर्चे मुंबई तक होने लगे। फिर मुक्ति, ठोकर, आपकी मर्जी, तकदीर, ज्वार-भाटा, हुमायूं, बरसात की रात, कभी अंधेरा कभी उजाला जैसी ढेरों फिल्में की। 

केएन सिंह की दो बेहतरीन फ़िल्में एक ही साल 1951 में आईं: राज कपूर की “आवारा” और गुरुदत्त की “बाज़ी”। बेशक, दोनों में ही वे खलनायक थे। दोनों ही फ़िल्में शहरी परिवेश पर केंद्रित थीं। लेकिन केएन सिंह की भूमिकाएँ बिलकुल अलग थीं। “आवारा” में उन्होंने एक डाकू और गली के गुंडे का किरदार निभाया था, जबकि “बाज़ी” में वे एक परिष्कृत खलनायक थे – एक अच्छे-अच्छे डॉक्टर, नायिका के पिता, एक सम्मानित व्यक्ति जो असल में एक जुए का अड्डा चलाता है।

बंबई में, केएन सिंह माटुंगा में रहे जहाँ उनके अच्छे दोस्त पृथ्वीराज भी रहते थे, जैसा कि केएल सहगल भी रहते थे जब वे रंजीत मोविटोन में काम करने के लिए बंबई आए थे। सिंह ने एक रात (1942), डब्ल्यू जेड अहमद के निर्देशन में बनी पहली फिल्म और इशारा (1943) जैसी फिल्मों में पृथ्वीराज के नायक के खलनायक की भूमिका निभाई, जिसमें उन्होंने पृथ्वीराज के सख्त पिता की भूमिका निभाई, जबकि वह उनसे छोटे थे! 1940 के दशक में केएन सिंह की अन्य महत्वपूर्ण फिल्में थीं ज्वार भाटा (1944) जिसमें दिलीप कुमार ने अपनी शुरुआत की, द्रौपदी (1944) जिसका निर्देशन बाबूराव पटेल ने किया और जिसमें सुशीला रानी पटेल ने अभिनय किया जिसमें उन्होंने दुर्योधन की भूमिका निभाई, नजीर-स्वर्णलता अभिनीत लैला मजनू (1945), सहगल की आखिरी फिल्म, परवाना (1947) और राज कपूर की बरसात (1949) में, उन्होंने भोलू का किरदार निभाया था, जो इतना बदसूरत था कि कोई भी लड़की उससे शादी नहीं करना चाहती थी! लैला मजनू में एक घटना याद आती है, जहाँ उन्होंने लैला के पिता की भूमिका निभाई थी, जहाँ उन्हें मजनू बने नज़ीर को थप्पड़ मारना था। नज़ीर ने इस दृश्य की प्रामाणिकता के लिए ज़ोर दिया कि उन्हें ठीक से थप्पड़ मारा जाए। केएन ने नज़ीर को दो दिनों के लिए काम से दूर रखा!

1950 के दशक के मध्य तक, प्राण के.एन. सिंह के आगे निकल गए थे हिंदी फिल्म उद्योग के प्रमुख खलनायक के रूप में,फिर भी, कुछ फ़िल्में ऐसी भी रहीं जिनमें सिंह ने मिलाप (1955), चलती का नाम गाड़ी (1958) और हावड़ा ब्रिज (1958) जैसी फ़िल्मों में एक परिष्कृत खलनायक के रूप में अपनी छाप छोड़ी। जाल (1952), फंटूश (1956), सीआईडी (1956), महलों के ख्वाब (1960) और छबीली (1960) जैसी फ़िल्में भी थीं जिनमें उन्होंने अपनी अलग भूमिकाएँ निभाईं और सहानुभूतिपूर्ण भूमिकाएँ बेहद प्रभावशाली ढंग से निभाईं। उनकी साल 1991 में में आखिरी फिल्म अजूबा रिलीज हुई। के. एन. सिंह ने शुरुआत में कई तरह के किरदार किए, लेकिन जल्द ही उन्हें एक सौम्य और गंभीर खलनायक की छवि के लिए पसंद किया जाने लगा। वे चीखते-चिल्लाते नहीं थे, बल्कि अपने ठंडे, संयमित और प्रभावशाली अभिनय से दर्शकों के मन में खौफ पैदा करते थे।

फ़िल्मी में अदाकारी का जौहर

के. एन. सिंह की अदाकारी का सबसे बड़ा जौहर था उनका संयमित और परिष्कृत अभिनय। वे चिल्लाने या ओवरएक्टिंग के बजाय अपनी गूढ़ निगाहों, शांत लेकिन डरावनी आवाज़, और राजसी ठाठ से दर्शकों को भयभीत करते थे। वे अक्सर सफेद सूट, पान और सिगार के साथ एक शातिर लेकिन ठंडे दिमाग़ वाले विलेन के रूप में सामने आते थे। उनकी चाल-ढाल और संवाद अदायगी में एक ठहराव और गहराई थी जो उन्हें अन्य खलनायकों से अलग बनाती थी।

कई आइकॉनिक फिल्मों में किया काम

1940 से 1960 के दौरान सिंह ने कई आइकॉनिक फिल्मों में काम किया जिनमें बसे मुख्य हैं, सिकंदर (1941), ज्वार भाटा (1944), हुमायूं (1945), आवारा (1951), जाल (1952), सीआईडी (1956), हावड़ा ब्रिज (1958), चलती का नाम गाड़ी (1958) और आम्रपाली (1966) जैसी फिल्में शामिल है. वो अधिकारतर फिल्मों में विलेन के किरदार में नजर आए। उन्होंने “हलाकू,” “जंजीर,” “काली घटा,” “काला पानी,” “ज्वेल थीफ,” जैसी फिल्मों में यादगार किरदार निभाए। देव आनंद, दिलीप कुमार, राज कपूर जैसे महानायकों के साथ काम करते हुए भी उन्होंने अपनी अलग पहचान कायम रखी।

खलनायकी से दर्शकों पर गहरी छाप

के. एन. सिंह ने कई चर्चित फिल्मों में अपनी खलनायकी से दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ी। “काला पानी” में उन्होंने निर्दयी जेलर का किरदार निभाया, जो आज भी याद किया जाता है। “ज्वेल थीफ” में उनका ठंडा और शातिर अंदाज़ दर्शकों को रोमांचित करता है। “हलाकू” में उनका रॉयल अंदाज़ और क्रूरता का मेल अद्भुत था। “काली घटा” और “आसमान” जैसी फिल्मों में भी उनका संयमित अभिनय देखने को मिला। “जंजीर” में उन्होंने अपराधी नेटवर्क के मास्टरमाइंड की भूमिका को बखूबी निभाया। “फंटूश” में उन्होंने कॉमिक नकारात्मक किरदार से भी प्रभावित किया।

 

“हावड़ा ब्रिज” में सिंह को एक क्लब में अशोक कुमार के सामने खूबसूरत मधुबाला को “आएँ मेहरबान…” गाने पर थिरकते हुए देखकर एकटक मुस्कुराते हुए देखा जा सकता है। “तीसरी मंज़िल” में वे एक शराबी की भूमिका निभाते हैं जो नायक शम्मी कपूर को उस हत्या के बारे में शक पैदा करता है जिसमें वह फँसा हुआ है। “हाथी मेरे साथी” में वे रामू हाथी को गोली मारने का आदेश देते हैं क्योंकि उनकी बेटी तनुजा इससे नाराज़ थी।

दिलीप कुमार ने कहा था कि के. एन. सिंह अभिनय में गरिमा और भय का अनोखा संगम थे। दिलीप कुमार और के. एन. सिंह के बीच गहरी दोस्ती थी। दोनों न केवल फिल्मी दुनिया में एक-दूसरे के काम की इज़्ज़त करते थे, बल्कि निजी जीवन में भी अच्छे मित्र थे। दिलीप कुमार अक्सर के. एन. सिंह की गंभीर और संयमित शख्सियत की तारीफ करते थे। शूटिंग के बाद दोनों घंटों गपशप करते और साहित्य, राजनीति पर चर्चा करते थे।

देव आनंद ने उन्हें “सबसे स्टाइलिश खलनायक” कहा। राज कपूर ने माना कि “उनकी मौन अभिव्यक्ति संवादों से ज़्यादा असरदार थी।” इन फिल्मों ने उन्हें हिंदी सिनेमा का अमिट चेहरा बना दिया। के. एन. सिंह केवल एक खलनायक नहीं थे, बल्कि वे उस दौर के सांस्कृतिक प्रतिनिधि थे जहाँ विलेन भी सलीकेदार, पढ़ा-लिखा और प्रभावशाली हो सकता है। वे खलनायकी में एक ‘क्लास’ लेकर आए, जो उनसे पहले नहीं देखा गया था।

उनकी अभिनय कला, शालीनता और गरिमा ने हिंदी सिनेमा को एक नया खलनायक दिया ;ऐसा खलनायक जो डराता नहीं, बल्कि सम्मोहित करता है। इसलिए उन्हें आज भी हिंदी सिनेमा का “सबसे सशक्त और कुलीन खलनायक” माना जाता है।

उनकी सौम्य शैली, गहरी आवाज़ और भयावह आँखें प्रसिद्ध हो गईं – इतनी कि एक अवसर पर (उनके अपने शब्दों में) “मैं पर्दे के पीछे भी एक बुरा आदमी था। एक दिन शूटिंग से लौटते समय, मुझे अपने दोस्त द्वारा दिए गए पते पर एक लिफाफा देना था। मैंने दरवाजे की घंटी बजाई और, हिलते हुए पर्दे से, मैंने एक महिला को दरवाजा खोलने के लिए जल्दी करते देखा। जब उसने मुझे अपने सामने खड़ा देखा, तो वह डर के मारे चीख पड़ी और दरवाजा खुला छोड़कर अंदर भाग गई।” एक अभिनेता के रूप में, सिंह की सीखने की ललक अद्भुत थी। उदाहरण के लिए, उन्होंने इंस्पेक्टर (1956) में घोड़ागाड़ी चलाने वाले की भूमिका के लिए घोड़ागाड़ी चलाने वालों की शैली और तौर-तरीकों का गहन अध्ययन किया।

केएन सिंह की चली गई थी आंखें

कहा जाता है कि करियर के अंतिम दिनों में केएन बिल्कुल ब्लाइंड हो गए थे। कहा जाता है कि केएन सिंह का मामूली मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुआ था। इसके बाद उन्हें कम दिखायी देने लगा और एक समय ऐसा आया कि बिल्कुल ही दिखना बंद हो गया था।

पत्रकार से मांग लिए थे पैसे

जब पत्रकार शशि रंजन, केएन सिंह का इंटरव्यू लेने पहुंचे थे, तो एक्टर को लगा कि कई साल बाद काम करने पर उन्हें शायद पैसे मिलेंगे। इसीलिए उन्होंने पूछ लिया था कि क्या इस इंटरव्यू के लिए मुझे कुछ पैसे मिलेंगे। उन्होंने यह भी कहा था कि मैं पैसे इसलिए नहीं मांग रहा क्योंकि मुझे जरूरत है। बल्कि आप पैसे देंगे तो मुझे इससे खुशी मिलेगी कि मैंने इतने साल बाद कुछ पैसे तो कमाए हैं।

अभिनेता के. एन. सिंह का जीवन हिंदी सिनेमा के सबसे प्रभावशाली खलनायकों में से एक के रूप में जाना जाता है। अपने फ़िल्मी करियर में सैकड़ों फिल्मों में काम करने के बाद, उनके जीवन के आख़िरी साल अपेक्षाकृत शांत और एकांतपूर्ण रहे।1975 के बाद उन्होंने अभिनय से किनारा कर लिया था। फिर भी 1986 में उन्हें ‘वो दिन आएगा’ फिल्म में अंतिम बार देखा गया था। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, उन्होंने 1991 में “अजूबा” में भी भूमिका निभाई थी। उम्र बढ़ने के साथ-साथ स्वास्थ्य भी गिरने लगा था। उन्हें मोतियाबिंद की समस्या हो गई थी और धीरे-धीरे उनकी दृष्टि कमजोर होती चली गई।

उनका अंतिम समय आर्थिक रूप से संघर्षपूर्ण नहीं था, क्योंकि उन्होंने अपने दौर में अच्छी ख्याति और धन अर्जित किया था। लेकिन बढ़ती उम्र के कारण सार्वजनिक जीवन से उनका जुड़ाव बहुत कम हो गया था। वे दक्षिण मुंबई के मलाबार हिल्स इलाके में स्थित अपने घर में परिवार के साथ रहते थे और फिल्मी दुनिया से पूरी तरह अलग हो चुके थे।

उनकी अंतिम उपस्थिति बहुत कम सार्वजनिक आयोजनों में ही देखी गई। कई पुराने सहकर्मी और फिल्म पत्रकार उनके अनुभवों को जानने की कोशिश करते, लेकिन वे मिलना बहुत कम पसंद करते थे। उनकी शांत, संयमी और गरिमामयी जीवनशैली उनके आख़िरी वर्षों में भी बनी रही।

31 जनवरी 2000 को 91 वर्ष की आयु में के. एन. सिंह का निधन हो गया। उनका जाना हिंदी सिनेमा के उस स्वर्णिम युग का अंत था जिसमें अभिनय और व्यक्तित्व, दोनों का विशेष महत्व था। वे आज भी अपने खास अंदाज़, भारी आवाज़ और सधे हुए अभिनय के लिए याद किए जाते हैं।

अभिनेता के. एन. सिंह का हिन्दी सिनेमा सृष्टि और मौजूदा दौर के खलनायकों पर प्रभाव

के. एन. सिंह हिन्दी सिनेमा के पहले उन गिने-चुने अभिनेताओं में से थे जिन्होंने खलनायक की परिभाषा को गंभीरता, गरिमा और सुसंस्कृत प्रस्तुति से जोड़ दिया। 1930 के दशक में जब हिन्दी फिल्मों में खलनायक को केवल क्रूर और भद्दे रूप में दिखाया जाता था, तब के. एन. सिंह एक परिष्कृत, शांत लेकिन भयभीत कर देने वाले खलनायक बनकर उभरे। उनका बोलने का सधा हुआ अंदाज़, परिष्कृत भाषा, परिधान में विलक्षणता और आंखों की पैनी नजर से उन्होंने हिन्दी सिनेमा में खलनायक के किरदार को एक नया आयाम दिया।

उनका अभिनय कभी चिल्ला-चिल्लाकर या हिंसा दिखाकर नहीं होता था, बल्कि उनकी चुप्पी, चाल और संवादों की शालीनता में ही खौफ छिपा रहता था। फ़िल्म हावड़ा ब्रिज, सीआईडी, जाल  जैसी फिल्मों में उनका किरदार आज भी याद किया जाता है। वह अपराधी होते हुए भी सभ्यता की चादर ओढ़े रहते थे, जो दर्शकों के मन में एक गहरी छाप छोड़ता था।

आज के दौर के खलनायकों पर के. एन. सिंह का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अमरीश पुरी, अनुपम खेर, डैनी डेन्जोंगपा, और मनोज बाजपेयी जैसे कलाकारों ने अपने किरदारों में मानसिक गहराई और गरिमामय खतरे का तत्व जोड़ा, जिसकी नींव कहीं न कहीं के. एन. सिंह ने ही रखी थी। मौजूदा समय के खलनायक अब केवल बाहरी हिंसा के प्रतीक नहीं हैं, बल्कि मानसिक खेल, चालाकी और परिष्कृत भाषा के माध्यम से भी अपने प्रभाव को दर्शाते हैं; जो के. एन. सिंह की शैली की याद दिलाता है।

के. एन. सिंह की यह विशेषता कि उन्होंने खलनायक को एक ‘क्लास’ प्रदान किया, आज भी फिल्मकारों को प्रेरित करती है। मौजूदा वेब सीरीज़ और फिल्मों में जो खलनायक दिखते हैं, उनमें उसका प्रतिबिंब दिखता है – चाहे वह सस्पेंस हो, मनोवैज्ञानिक दबाव हो या संवादों का प्रभाव। इस प्रकार, के. एन. सिंह ने न केवल अपने समय में खलनायक की भूमिका को परिभाषित किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के कलाकारों को भी गहराई से प्रभावित किया।

सन्दर्भ: जागरण,भारतकोश,पंजाब केसरी,अमर उजाला, नवभारतटाइम्स.कॉम, BBC,Screen, NDTV.in,Times Of India,IMDb,Jansatta.com,Screen,The Golden Age, India Today


Author Bio: Dinesh Dhawane

Dinesh Dhawane - Nagpur Film SocietyDinesh Dhawane is a publisher, author, bibliophile, paleo-botanist, and passionate film critic. He has authored numerous professional books for universities and colleges, contributing significantly to academic literature. A dedicated collector of rare books, he owns one of the largest personal libraries in the country.

An avid cinema enthusiast, Dinesh is widely regarded as an authority on film history and personalities. He serves as a Core Committee Member of both the Nagpur Book Club and the Nagpur Film Society, actively promoting literary and cinematic culture.

 

3 Comments

  1. Deshpande

    Thanks for sharing such a detailed review about Singh Sir…Share more such stories please.

  2. Nitin hande

    अशा या अल्प चर्चित मात्र गुणी अभिनेत्याची एवढी सविस्तर ओळख करून दिल्या बद्दल खूप खूप आभारी आहे.. आपली लेखणी अशीच बहरत राहो आणि अश्याच अल्प चर्चित मात्र गुणी कलावंतांची ओळख आम्हाला होत राहो..

  3. Kavita Ghugal

    बेहतरीन लेख….के एन सिंह जी के सफ़र को विस्तार से और रोचक तरीके से लिखा गया है। जिस शख़्स को सिर्फ़ चेहरे, नाम और काम से पहचान ते थे उनकी जीवनी को जान कर बहुत अच्छा लगा।

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