‘आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता’
मीना कुमारी हिन्दी फिल्मों की एक ऐसी महान अभिनेत्री थीं, जिनकी अदाकारी, भावनात्मक गहराई और संजीदगी ने सिनेमा को नई ऊँचाइयाँ दीं।अभिनेत्री होने के साथ-साथ मीना कुमारी एक उम्दा शायारा एवं पार्श्वगायिका भी थीं। मीना कुमारी का असली नाम महजबीन बानो था। उन्होंने बाल कलाकार के रूप में फिल्मी करियर की शुरुआत की और आगे चलकर 1950 और 60 के दशक की सबसे प्रभावशाली अभिनेत्रियों में शामिल हो गईं।
मीना कुमारी की प्रमुख फिल्मों में पाकीज़ा, साहिब बीबी और गुलाम, बैजू बावरा, दिल एक मंदिर, फूल और पत्थर, काजल और बाहारों की मंज़िल शामिल हैं। उनकी अदायगी में दर्द, संवेदना और स्त्री के मनोवैज्ञानिक पक्ष की गहरी झलक मिलती है। वे सिर्फ अभिनेत्री नहीं थीं, बल्कि एक उम्दा शायरा भी थीं, जिन्होंने अपने जीवन के दर्द को शेरो-शायरी में भी पिरोया।
मीना कुमारी की शख्सियत गहरी और जटिल थी। पर्दे पर वे जितनी मजबूत दिखती थीं, निजी जीवन में उतनी ही अकेली और टूटी हुई थीं। उन्होंने भारतीय महिला के संघर्ष, त्याग और आत्मसम्मान को अपने अभिनय से जीवंत रूप दिया। उनके संवादों में एक विशेष भावनात्मक गूंज होती थी, जो दर्शकों के दिलों को छू जाती थी।
हिन्दी सिनेमा में मीना कुमारी का योगदान अमूल्य है। वे केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि एक युग थीं, जिन्होंने अभिनय को भावनाओं की सच्ची अभिव्यक्ति बनाया। उनका नाम आज भी भारतीय सिनेमा में आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।
जन्म, पारिवारिक स्थिति और बाल कलाकार के रूप में पहला प्रदर्शन
मीना कुमारी का जन्म 1 अगस्त 1933 को मुंबई (तत्कालीन बॉम्बे) के दादर इलाके में हुआ था। उनका असली नाम महजबीन बानो था। उनके पिता अली बक्श एक संगीतकार और नाटककार थे, जो पारसी थिएटर से जुड़े हुए थे। उनकी माँ इकबाल बेग़म एक बंगाली मूल की ईसाई महिला थीं, जिन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार किया था।
जब उनका जन्म हुआ, तब पिता अली बख्श और मां इकबाल बेग़म के पास डॉक्टर को देने के पैसे नहीं थे। हालत यह थी कि दोनों ने तय किया कि बच्ची को किसी अनाथालय के बाहर सीढ़ियों पर छोड़ दिया जाए और छोड़ भी दिया गया। लेकिन, पिता का मन नहीं माना और वह पलट कर भागे और बच्ची को गोद में उठाकर घर ले आए। किसी तरह मुश्किल भरे हालातों से लड़ते हुए उन्होंने उसकी परवरिश की।मीना कुमारी का परिवार आर्थिक रूप से काफी संघर्षपूर्ण स्थिति में था। कई बार उन्हें दो वक्त की रोटी के लिए भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।
ऐसे पड़ा नाम ‘मीना‘
मीना कुमारी ने अधिकतर विजय भट्ट के साथ काम किया था। उन्हें मीना कुमारी का ‘माहजबीं’ नाम अच्छा नहीं लगता था। लिहाजा विजय भट्ट ने मीना कुमारी को ‘बेबी मीना’ नाम दे दिया। इस तरह से अभिनेत्री का एक नाम ये भी पड़ गया। मीना कुमारी ‘ट्रेजेडी क्वीन‘ के नाम से सबसे ज्यादा फेमस हुईं। मगर उन्हें और भी कई नामों से पुकारा जाता रहा। उनका असली नाम महजबीं बानो था। बचपन के दिनों में मीना कुमारी की आंखें बहुत छोटी थीं इसलिये परिवार वाले उन्हें ‘चीनी’ कहकर पुकारा करते थे।
मीना कुमारी का फिल्मी करियर महज चार साल की उम्र में शुरू हुआ जब आर्थिक तंगी के चलते उनके पिता उन्हें बॉम्बे टॉकीज़ ले गए ताकि वह फिल्मों में काम कर सकें। डायरेक्टर विजय भट्ट ने मीना कुमारी को ‘लेदरफेस'(जिसे फरजंद–ए–वतन भी कहा गया) में कास्ट किया था। इस फिल्म में उन्होंने एक बाल कलाकार के रूप में पहली बार काम किया। उस समय वह “बेबी महजबीन“ के नाम से जानी जाती थीं। इस फिल्म में उनके छोटे लेकिन भावनात्मक रोल ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया और निर्माता-निर्देशकों की नजर उन पर पड़ी।
इसके बाद मीना कुमारी ने कई बाल भूमिकाएं निभाईं और धीरे-धीरे फिल्म इंडस्ट्री में एक पहचान बनाई। 13 साल की उम्र तक उन्होंने ‘अधूरी कहानी’, ‘पूजा’, ‘एक ही भूल’, ‘नई रोशनी’, ‘कसौटी’, ‘विजय’, ‘गरीब’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘बहन’ और ‘लाल हवेली’ फिल्मों में काम किया था। उनका अभिनय स्वाभाविक और भावपूर्ण होता था, जो उस समय की अन्य बाल कलाकारों से उन्हें अलग करता था। छोटी उम्र में ही उनकी आंखों की गहराई और संवाद अदायगी की गंभीरता ने यह संकेत देना शुरू कर दिया था कि वह भविष्य में एक महान अभिनेत्री बनेंगी।
मीना कुमारी का बचपन संघर्षों और बलिदानों से भरा रहा, परंतु उन्होंने कभी हार नहीं मानी। अपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए उन्होंने खुद को अभिनय के क्षेत्र में समर्पित किया और आने वाले वर्षों में वह भारतीय सिनेमा की सबसे प्रतिष्ठित और भावनात्मक अभिनेत्री बनीं। बाल कलाकार से लेकर “ट्रेजडी क्वीन” बनने तक का उनका सफर प्रेरणादायक है।
उदासियों ने मिरी आत्मा को घेरा है
रूपहली चाँदनी है और घुप अंधेरा है
शुरुआती वर्षों में मीना कुमारी ने बी और सी ग्रेड फिल्मों में छोटे-मोटे रोल किए, जिनमें पौराणिक व सामाजिक फिल्में प्रमुख थीं। इस दौरान उन्होंने कई नामों से काम किया, परन्तु उन्हें पहचान नहीं मिली। उनका पहला बड़ा ब्रेक 1952 में आई फिल्म “बैजू बावरा“ से मिला, जिसमें उन्होंने नायिका की भूमिका निभाई। इस फिल्म में उनके साथ भारत भूषण थे और नौशाद का संगीत व Shakeel Badayuni के गीतों ने फिल्म को सुपरहिट बना दिया।
मीना कुमारी का टैगोर परिवार से संबंध
मीना कुमारी का टैगोर परिवार से एक विशेष सांस्कृतिक संबंध रहा, जो कम ही लोगों को ज्ञात है। मीना कुमारी की बड़ी बहन खुर्शीद मिर्ज़ा (स्क्रीन नाम: रेनूका देवी) की शादी अहमद शाहबुद्दीन से हुई थी, जो कि टैगोर परिवार की एक शाखा से जुड़े थे। इस प्रकार मीना कुमारी का पारिवारिक जुड़ाव इस प्रतिष्ठित बंगाली परिवार से बना। टैगोर परिवार भारतीय कला, साहित्य और संगीत का एक समृद्ध केंद्र रहा है, जिसमें रवींद्रनाथ टैगोर जैसे विश्वविख्यात कवि और नोबेल पुरस्कार विजेता शामिल हैं। मीना कुमारी स्वयं भी साहित्य, कविता और क्लासिकल संगीत में गहरी रुचि रखती थीं, जो शायद टैगोर परिवार से जुड़े इस सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव भी हो सकता है। यह संबंध उनके रचनात्मक व्यक्तित्व को और भी समृद्ध करता है। इस प्रकार मीना कुमारी का जीवन टैगोर परिवार की सांस्कृतिक विरासत से अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा रहा।
मीना कुमारी का फिल्मी दुनिया में सफर संघर्षों से भरा रहा
वर्ष 1952 में आई फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ में मीना कुमारी ने गौरी की भूमिका से काफ़ी ख्याति प्राप्त की और मीना कुमारी के फ़िल्मी सफ़र को नई उड़ान दी। उनकी फ़िल्म 100 हफ़्तों तक परदे पर रही और 1954 में हुए पहले फ़िल्मफ़ेयर में उन्हें इसके लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
न हाथ थाम सके न पकड़ सके दामन
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई
“बैजू बावरा” की सफलता ने मीना कुमारी को एक गंभीर, भावनात्मक और संजीदा अभिनेत्री के रूप में स्थापित किया। यहीं से उनके करियर को गति मिली और उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह फिल्म उनके जीवन का एक निर्णायक मोड़ साबित हुई।
ज़िंदगी में सिर्फ़ दर्द ही दर्द , पिता से लेकर प्रेमी तक
मीना कुमारी, जिन्हें ट्रैजेडी क्वीन कहा जाता है, उनकी ज़िंदगी में आए प्रेम संबंध और पुरुषों के साथ उनके असफल रिश्तों ने उनके व्यक्तिगत जीवन, स्वास्थ्य और फ़िल्मी करियर पर गहरा प्रभाव डाला।
मीना कुमारी की ज़िंदगी में पहला प्रमुख रिश्ता फिल्म निर्देशक कमाल अमरोही से जुड़ा। कमाल अमरोही ने मीना कुमारी को न केवल जीवनसाथी बल्कि एक कलाकार के रूप में भी अपनाया। लेकिन यह रिश्ता जल्द ही अधिकार, जलन और असुरक्षा से भर गया। कमाल अमरोही मीना कुमारी पर कई बंदिशें लगाते थे – सेट पर न ज़्यादा बात करना, सीधा घर लौटना, यहां तक कि उनके मेकअप मैन तक पर रोक। यह रिश्ता मीना कुमारी के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने लगा और धीरे-धीरे उनका मानसिक संतुलन डगमगाने लगा। उनका दूसरा चर्चित रिश्ता अभिनेता धर्मेंद्र से जुड़ा।
धर्मेंद्र को अपना मानने लगी थीं मीना कुमारी
जब धर्मेंद्र (Dharmendra) फिल्म लाइन में आए, तब तक मीना कुमारी सुपरस्टार बन चुकी थीं। मीना कुमारी ने धर्मेंद्र को करियर की शुरुआत में सहारा दिया, उन्हें फिल्मों में काम दिलवाया। उन्हीं की सिफारिश पर धर्मेंद्र को कई फि्ल्मों में काम मिला। मीना कुमारी ने ही धर्मेंद्र का व्यक्तित्व भी निखारा। उन्हें अदाकारी के गुर सिखाए और इसी सिलसिले में वह उनके करीब आ पाईं। दोनों के दिल में एक दूसरे के लिए सॉफ्ट कॉर्नर था, कहा जाता है कि मीना कुमारी उनसे बेहद प्यार करने लगी थीं, लेकिन शादीशुदा होने की वजह से इस मामले में कुछ कर न सके और समय के साथ धर्मेंद्र का व्यवहार बदलने लगा और उन्होंने मीना कुमारी से दूरी बना ली। यह भावनात्मक धोखा मीना कुमारी को अंदर से तोड़ गया।
धर्मेंद्र और मीना कुमारी की एक फोटो ने उस जमाने में काफी तूल पकड़ी थी, जिसे कहीं न कहीं कमाल और मीना कुमारी के झगड़े और शादी के अंत की शुरुआत का कारण माना जाता है।
इन दोनों असफल प्रेम संबंधों ने मीना कुमारी को गहरे अवसाद में धकेल दिया। वे शराब की लत में डूबती चली गईं। शराब को उन्होंने अपने दर्द का सहारा बनाया, लेकिन वही शराब उनके स्वास्थ्य की सबसे बड़ी दुश्मन बन गई। उन्हें लिवर सिरोसिस जैसी गंभीर बीमारी हो गई।
इस मानसिक और शारीरिक पीड़ा ने उनके फ़िल्मी करियर को भी बुरी तरह प्रभावित किया। एक समय में जो मीना कुमारी सबसे अधिक मांग में थीं, धीरे-धीरे फिल्म निर्माता उनसे कतराने लगे। उनका स्वास्थ्य शूटिंग पर असर डालने लगा और उनके काम में भी गिरावट आने लगी।
मीना कुमारी की ज़िंदगी में आए मर्दों ने उन्हें प्रेम नहीं, बल्कि दर्द दिया। यही दर्द उनकी कविताओं और संवादों में झलकता है – “मैं अपनी पसंद की आख़िरी चीज़ थी, जिसे मैं खो बैठी।” उनका जीवन एक ऐसी कहानी बन गया, जिसमें प्रेम तो अधूरा रहा, पर दर्द ने उन्हें अमर बना दिया।
मीना कुमारी की प्रसिद्ध फ़िल्में, उनमें उनके अभिनय का जौहर और हिन्दी सिनेमा में उनकी अहमियत
मीना कुमारी, जिन्हें ‘ट्रेजेडी क्वीन’ के नाम से जाना जाता है, हिन्दी सिनेमा की उन अद्वितीय अदाकाराओं में थीं जिनकी आंखें, आवाज़ और भावनात्मक अभिव्यक्ति ने करोड़ों दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनका फिल्मी सफर कई यादगार और ऐतिहासिक फिल्मों से सजा है, जो आज भी भारतीय सिनेमा की धरोहर मानी जाती हैं।
उनकी प्रसिद्ध फिल्मों में ‘पाकीज़ा’ सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने साहिबजान की भूमिका निभाकर दर्द, प्रेम और पीड़ा को इतनी गहराई से निभाया कि वह किरदार अमर हो गया। ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ में छोटी बहू का किरदार निभाते हुए उन्होंने नारी की पीड़ा, अकेलापन और समाज में उसकी स्थिति को बड़ी शिद्दत से प्रस्तुत किया। ‘बैजू बावरा’, ‘परिणीता’, ‘दिल एक मंदिर’, ‘मेरे अपने’, और ‘फुटपाथ’ जैसी फिल्मों में उनका अभिनय विविधता भरा था—कभी मासूम, कभी विद्रोही, तो कभी त्यागमयी।
मीना कुमारी की संवाद अदायगी बेहद भावनात्मक होती थी। उनके चेहरे के हावभाव, आंखों की गहराई और आवाज़ की नर्मी ने दर्शकों के दिलों में गहरी छाप छोड़ी। वो सिर्फ एक अभिनेत्री नहीं थीं, बल्कि कवयित्री भी थीं, और उनकी आत्मा उनकी भूमिकाओं में झलकती थी।
हिन्दी सिनेमा में मीना कुमारी का योगदान अमूल्य है। उन्होंने उस दौर में नारी पात्रों को गंभीरता और गहराई दी जब महिला किरदार प्रायः सीमित और सपाट होते थे। उन्होंने स्त्री के अंतर्मन को परदे पर जीवंत किया और सिनेमा को एक संवेदनशील और कलात्मक पहचान दी।
मीना कुमारी की कला, उनके पात्र और उनका दर्द आज भी हिन्दी सिनेमा को संवेदनशीलता और गरिमा प्रदान करते हैं। वे एक युग थीं, एक मिसाल थीं।
डाकू अमृत लाल से मुलाकात
फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ की शूटिंग के दौरान कमाल अमरोही और मीना कुमारी के साथ एक दिलचस्प घटना घटी। मशहूर पत्रिका ‘आउटलुक‘ के संपादक रहे विनोद मेहता ने मीना कुमारी की जीवनी ‘मीनाकुमारी– ए क्लासिक बायोग्राफ़ी‘ नाम से लिखी है, उनके अनुसार- ‘आउटडोर शूटिंग पर कमाल अमरोही अक्सर दो कारों पर जाया करते थे। एक बार दिल्ली जाते हुए मध्य प्रदेश में शिवपुरी में उनकी कार में पैट्रोल ख़त्म हो गया। कमाल अमरोही ने कहा कि ‘हम रात कार में सड़क पर ही बिताएंगे।’
उनको पता नहीं था कि ये डाकुओं का इलाका है। आधी रात के बाद करीब एक दर्जन डाकुओं ने उनकी कारों को घेर लिया। उन्होंने कारों में बैठे हुए लोगों से कहा कि वह नीचे उतरें। कमाल अमरोही ने कार से उतरने से इंकार कर दिया और कहा कि ‘जो भी मुझसे मिलना चाहता है, मेरी कार के पास आए।’ थोड़ी देर बाद एक सिल्क का पायजामा और कमीज़ पहने हुए एक शख़्स उनके पास आया। उसने पूछा- ‘आप कौन हैं?’ अमरोही ने जवाब दिया- ‘मैं कमाल हूँ और इस इलाके में शूटिंग कर रहा हूँ। हमारी कार का पैट्रोल ख़त्म हो गया है।’ डाकू को लगा कि वह रायफ़ल शूटिंग की बात कर रहे हैं। लेकिन जब उसे बताया गया कि ये फ़िल्म शूटिंग है और दूसरी कार में मीना कुमारी भी बैठी हैं, तब उसके हावभाव बदल गए। उसने तुरंत संगीत, नाच और खाने का इंतज़ाम कराया। उन्हें सोने की जगह दी और सुबह उनकी कार के लिए पेट्रोल भी मंगवा दिया। चलते-चलते उसने मीना कुमारी से कहा कि वह नुकीले चाकू से उसके हाथ पर अपना ऑटोग्राफ़ दे दें। जैसे-तैसे मीना कुमारी ने ऑटोग्राफ़ दिए। अगले शहर में जाकर उन्हें पता चला कि उन्होंने मध्य प्रदेश के उस समय के नामी डाकू अमृत लाल के साथ रात बिताई थी।
फ़िल्म ‘पाकीज़ा‘ में राज कुमार का वो डायलॉग –इन्हें ज़मीन पर मत…
फ़िल्म में हर रात मीना कुमारी ट्रेन की आवाज़ सुनती है और उस अनजान शख़्स को याद करते हुए कहती है- “हर रात तीन बजे एक रेलगाड़ी अपनी पटरियों से उतर कर मेरे दिल से गुज़रती है…और मुझे एक पैग़ाम दे जाती है.”
एक तवायफ़ की ये तड़प उस ग़ुमनाम इंसान के लिए है जो उसके पैरों के नाम एक हसीन प़ैगाम लिख गया है. वो पैर जो सिर्फ़ औरों के लिए शामों को थिरकते रहे हैं.
लेकिन कोठो में रहने वाली साहिबजान (मीना कुमारी) की दोस्त उसे हक़ीकत का एहसास दिलाती है – “ये पैग़ाम तेरे लिए नहीं है. उस वक़्त तेरे पैरों में घुँघरू बंधे हुए नहीं होंगे. अगर घुँघरू बंधे हुए होते तो कैसे कोई कहता कि इन पैरों को ज़मीं पर मत रखना. ये पैग़ाम तो है लेकिन भटक गया है.”
पाकीज़ा जज़्बातों की कहानी है, तवायफ़ों और कोठों की कहानी है, मुस्लिम समाज को दर्शाती एक दास्तां है लेकिन सबसे ख़ूबसूरत बात है कि ये औरत के नज़रिए से ही कही एक औरत की कहानी है जो अमूमन कम देखने को मिलता है।
मीना कुमारी पर फिल्माए गए गीत
मीना कुमारी पर फिल्माए गए कई गाने आज भी हिंदी सिनेमा की धरोहर माने जाते हैं। उनकी भावनात्मक गहराई, आंखों की अभिव्यक्ति और अद्वितीय दर्द को इन गीतों के माध्यम से दर्शकों ने महसूस किया। मीना कुमारी को ‘ट्रेजेडी क्वीन’ कहा जाता है, और यही दर्द उनके गीतों में भी झलकता है।
- “चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो“ फ़िल्म पाकीज़ा (1972) का एक बेहद मशहूर गीत है, जिसे मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर ने गाया था। इसे संगीतबद्ध किया गुलाम मोहम्मद ने और लिखा कैफ़ भोपाली साहब ने। यह गीत मीना कुमारी और राजकुमार पर फ़िल्माया गया था। कहा जाता है कि इस गाने की शूटिंग के दौरान मीना कुमारी की तबीयत बहुत खराब थी, फिर भी उन्होंने शूटिंग पूरी की। गाने में प्रेम, कल्पना और सौंदर्य का अनोखा संगम दिखता है। इसके बोल और धुन आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं। यह गीत हिंदी सिनेमा की अमर धरोहर बन गया है।
कैफ़ भोपाली साहब जब कमाल अमरोही की सोहबत में आए तब लिखा चलो दिललार चलो..
अपने जमाने के अजीम फनकार कैफ़ भोपाली साहब जब नामचीन फिल्म निर्माता कमाल अमरोही की सोहबत में आए और फिल्म ‘पाकीजा’ के लिए उन्होंने ‘चलो दिललार चलो…’ लिखा और मोहम्मद रफी ने इस गीत को अपनी आवाज देकर अमर कर दिया तो जमाने को कै़फ़ साहब की तलब होने लगी।
फिल्म ‘पाकीजा’ के गीत आज भी लोग बड़ी शिद्दत से सुनते हैं, गुनगुनाते हैं। 1972 में बनी फिल्म ‘पाकीजा’ की कहानी एक तवायफ के इर्द-गिर्द घूमती है और उस कथानक के मद्देनज़र कै़फ़ साहब ने जो गीत लिखे मसलन ‘तीरे नजर देखेंगे…’ को लता जी के सुरीले कंठ ने कालजयी बना दिया।
वैसे तो कै़फ़ भोपाली साहब की मूल विधा ग़ज़ल और उर्दू शायरी थी लेकिन वो फिल्मों में भी सक्रिय रहे और ‘पाकीजा’ के लिखे गीत उनकी यादगार रचनाओं में शामिल है। कहते हैं कै़फ साहब की कमाल अमरोही से मुलाकात एक मुशायरे के दौरान ही हुई थी और उसी दरम्यान कमाल अमरोही ने उन्हें गीत लिखने का मशविरा दे डाला। कमाल साहब की सलाहियत पर अमल करते हुए क़ैफ़ भोपाली शायर से गीतकार बन गए।
- “इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा“ – पाकीज़ा का ही यह चुलबुला गीत, मीना कुमारी की अदाओं का अलग ही रूप दिखाता है। यह गाना उनके अभिनय में विविधता को दर्शाता है।
- “न जाओ सैंया छुड़ा के बैइयां“ – साहिब बीबी और ग़ुलाम का यह गीत एक पत्नी की बेबसी और प्रेम की सच्चाई को दर्शाता है। मीना कुमारी का अभिनय और गाना, दोनों दर्शकों के दिल को छू जाते हैं।
- “मुझे मिल गया बहाना तेरे दीदार का“ – यह गीत मीना कुमारी की मासूमियत और प्रेम में डूबी आत्मा को दर्शाता है।
मीना कुमारी के कुछ लोकप्रिय गाने
- पाकीज़ा (1972): “चलते चलते यूं ही कोई”
- आरती (1962): “कभी तो मिलेगी, कहीं तो मिलेगी”
- बैजू बावरा (1952): “मोहे भूल गए सांवरिया” और “इन्हे लोगों ने क्या नाम दिया”
- कोहिनूर (1960): “साकी-साकी” और “आज मौसमे गुल”
- चित्रलेखा (1964): “याद ना जाए”
- दिल एक मंदिर (1963): “रुक जा रात”
मीना कुमारी के जीवन में जितना दर्द था, उतना ही दर्द उनके गीतों में भी उभर कर आता है। कहा जाता है कि पाकीज़ा के अंतिम दिनों में वे इतनी बीमार थीं कि गाने की शूटिंग के दौरान भी सहारा लेकर खड़ी होती थीं। परंतु उनकी आंखों में जो अभिनय था, वह आज भी दर्शकों को रुला देता है। उनके गाने सिर्फ गीत नहीं, बल्कि उनके दिल का आइना हैं – सजीव, संवेदनशील और अमर।
पार्श्वगायक के रूप में करियर
मीना कुमारी एक पार्श्व गायिका भी थीं। उन्होंने 1945 तक बहन जैसी फिल्मों के लिए एक बाल कलाकार के रूप में गाया। एक नायिका के रूप में, उन्होंने दुनिया एक सराय (1946), पिया घर आजा (1948), बिछड़े बालम (1948) और पिंजरे के पंछी (1966) जैसी फिल्मों के गीतों को अपनी आवाज दी। उन्होंने पाकीज़ा (1972) के लिए भी गाया, हालांकि, इस गाने का फिल्म में इस्तेमाल नहीं किया गया था और बाद में इसे पाकीज़ा-रंग बा रंग (1977) एल्बम में रिलीज़ किया गया था।
मीना कुमारी का एल्बम “I Write, I Recite” – एक भावनात्मक दस्तावेज़
मीना कुमारी को सिर्फ़ एक महान अभिनेत्री के रूप में ही नहीं, बल्कि एक संवेदनशील शायरा के रूप में भी जाना जाता है। उनके अंतर्मनकी गहराइयों से निकली हुई कविताएँ उनकी भावनाओं, अकेलेपन और पीड़ा की साक्षी हैं। उनका एल्बम “I Write, I Recite” उनकी उन्हीं भावनाओं का दस्तावेज़ है।
यह एल्बम 1971 में जारी किया गया था और इसमें मीना कुमारी ने अपनी खुद की लिखी हुई शायरी को खुद अपनी आवाज़ में पढ़ा है।मीना कुमारी के एल्बम “आई राइट, आई रिसाइट” का संगीत खय्याम साहब ने दिया था। इस एल्बम में कुल 8 गज़लें थीं। यह एल्बम भारतीय फिल्मी इतिहास में एक अनोखा प्रयोग माना जाता है क्योंकि पहली बार किसी प्रमुख अभिनेत्री ने अपने दिल की बात को कविता के माध्यम से रिकार्ड कर सबके सामने रखा।
इस एल्बम में उनकी आवाज़ बेहद गूंजती हुई, धीमी और दर्द से भरी हुई है। उनकी शायरी में अकेलापन, अधूरी मोहब्बत, आत्ममंथन और जीवन की विडंबनाएँ प्रमुख रूप से झलकती हैं। शायरी का अंदाज़ बेहद नाज़ुक और क्लासिक उर्दू शब्दावली से भरा है, जो उनके अंदरकी लेखिका की प्रतिभा को दर्शाता है।
फिल्म पाकीज़ा ने मीना कुमारी को अमर बना दिया
इस फिल्म में उनके द्वारा निभाई गई साहिबजान की भूमिका भावनाओं, पीड़ा और सुंदरता का संगम थी। उनकी आँखों की गहराई, संवाद अदायगी और मोहक अभिव्यक्ति ने किरदार को जीवन्त बना दिया। पाकीज़ा के गीतों और संगीत में भी मीना कुमारी की आत्मा झलकती है। यह फिल्म उनके जीवन की अंतिम और सबसे यादगार प्रस्तुति बनी। उनके अभिनय ने उन्हें “ट्रेजेडी क्वीन” की उपाधि दिलाई और पाकीज़ा को सदा के लिए हिंदी सिनेमा की अमर कृति बना दिया।
गुरु दत्त और मीना कुमारी
गुरु दत्त और मीना कुमारी हिंदी सिनेमा के दो अमर नाम हैं। दोनों ने अपने अभिनय और भावनात्मक गहराई से दर्शकों के दिलों में खास जगह बनाई। हालांकि उन्होंने बहुत कम फिल्मों में साथ काम किया, परंतु उनके अंदर की संवेदनशीलता, अकेलापन और कलात्मकता में अद्भुत साम्यता थी। दोनों ही कलाकारों का जीवन दर्द और अधूरे प्रेम से भरा रहा, जो उनके अभिनय में झलकता है। यदि ये साथ ज़्यादा काम करते, तो सिनेमा को और भी क्लासिक रचनाएँ मिलतीं। ये दो आत्माएँ कला के माध्यम से अमर हो गईं।
गुरु दत्त और मीना कुमारी की ‘साहब बीबी और ग़ुलाम‘ में अभिनय का जादू
‘साहब बीबी और ग़ुलाम’ (1962) हिन्दी सिनेमा की एक कालजयी कृति है, जिसमें गुरु दत्त और मीना कुमारी ने अपने अभिनय कौशल की पराकाष्ठा दिखाई। यह फ़िल्म सिर्फ़ एक सामाजिक कहानी नहीं, बल्कि एक दर्दनाक प्रेमकथा है जो ज़मींदारी व्यवस्था के पतन और एक औरत की व्यथा को बारीकी से दर्शाती है।
मीना कुमारी ने ‘छोटी बहू’ के किरदार को जिस गहराई, नज़ाकत और दर्द के साथ निभाया, वह हिन्दी सिनेमा के इतिहास में अमर है। शराबी पति के प्यार को पाने की उनकी बेबसी, उनकी आंखों से बहते सन्नाटे और आवाज़ में छिपा दर्द दर्शकों को भीतर तक झकझोर देता है। मीना कुमारी का संवाद, “कहाँ है मेरा प्यार? क्या मैं इतनी भी प्यारी नहीं?” आज भी कानों में गूंजता है।
गुरु दत्त, जिन्होंने भूतनाथ का किरदार निभाया, एक साधारण मज़दूर के माध्यम से उस समाज का आईना दिखाते हैं जो बड़े घरों की चमक के पीछे छिपे अंधेरे को नहीं देखता। उनका अभिनय संयमित, गहन और प्रभावशाली था। उन्होंने मीना कुमारी के दर्द को न सिर्फ़ पर्दे पर समझा, बल्कि उसे जीवंत रूप भी दिया।
इस फ़िल्म में दोनों कलाकारों का अभिनय भावनाओं की उस ऊँचाई पर पहुँचता है, जहाँ शब्द कम पड़ जाते हैं। ‘साहब बीबी और ग़ुलाम’ सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं, बल्कि अभिनय का एक उत्कृष्ट अध्याय है जिसे बार-बार देखा और सराहा जाता है।
मीना कुमारी एक शायरा के रूप में और गुलज़ार साहब के नाम उनकी वसीयत
मीना कुमारी को हम सभी एक महान अभिनेत्री के रूप में जानते हैं — एक ऐसी कलाकार जिनकी आँखों में दर्द बोलता था और आवाज़ में टूटे दिल की सदा होती थी। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि मीना कुमारी सिर्फ़ अदाकारा ही नहीं थीं, बल्कि एक संवेदनशील और गहरी सोच वाली शायरा भी थीं। उनके भीतर का अकेलापन, टूटा हुआ दिल, और जीवन की अनकही पीड़ा उनकी शायरी के ज़रिये काग़ज़ पर उतरती थी।
उनका असली नाम “महजबीं बानो” था, और शायरी में वह “नाज़“ के नाम से लिखा करती थीं। उनकी शायरी में जो दर्द था, वो उनके व्यक्तिगत जीवन का आईना थी। प्यार में असफलता, तनहाई, और अंतहीन इंतज़ार – ये सब उनकी कलम से बहते थे जैसे कोई रुका हुआ समंदर फूट पड़ा हो।
मीना कुमारी को उर्दू अदब से गहरा लगाव था। उनकी शायरी में मीर और ग़ालिब की छाया थी, लेकिन ज़ुबान बिलकुल अपनी थी – मुलायम, दिल से निकली हुई, और दिल को ही छू लेने वाली। उन्होंने अपने आख़िरी दिनों में एक डायरीनुमा संग्रह में अपनी कई ग़ज़लें और शेर लिखे, जो बाद में “तन्हा चाँद“ नाम से प्रकाशित हुआ। इन अशआरों में हम एक टूटी हुई और फिर भी मज़बूत और गहराई से सोचने वाली आत्मा की आवाज़ सुनते हैं। जैसे—
एक झलक जो पा गई हूँ, ताउम्र उसका नशा रहेगा,
वो जो कभी पास न आया, फिर भी सबसे ख़ास रहेगा
मीना कुमारी की मौत से कुछ समय पहले उनकी तबीयत बेहद ख़राब चल रही थी। तब उन्होंने अपने करीबी और साहित्य प्रेमी मित्र गुलज़ार साहब को बुलाया। मीना कुमारी जानती थीं कि उनके लिखे हुए शब्द किसी के पास सुरक्षित रहने चाहिए — किसी ऐसे के पास जो उन्हें समझ सके, संभाल सके, और सही रूप में दुनिया के सामने ला सके।
गुलज़ार साहब से मीना कुमारी का रिश्ता सिर्फ़ दोस्ती का नहीं था, वह एक गहरा भावनात्मक जुड़ाव था — एक रूहानी संवाद। उन्होंने गुलज़ार साहब के हाथों में अपनी डायरी सौंपते हुए कहा था —
गुलज़ार, ये अल्फ़ाज़ अब मेरे नहीं रहे। इन्हें तुम संभाल लो। जब मैं नहीं रहूँ, तो ये ज़िंदा रहें।
यह मीना कुमारी की वसीयत थी — उनकी शायरी को ज़िंदा रखने की। गुलज़ार साहब ने इस ज़िम्मेदारी को निभाया और मीना कुमारी की कविताओं और ग़ज़लों को संरक्षित किया। उन्होंने उन्हें प्रकाशित करवाया और एक साहित्यिक पहचान दिलवाई।
गुलज़ार साहब ने एक बार कहा था —
“मीना सिर्फ़ अदाकारा नहीं थीं। वे अल्फ़ाज़ से रिश्ता रखने वाली एक पूरी किताब थीं। जब उन्होंने अपनी डायरी मेरे हवाले की, तो ऐसा लगा जैसे किसी ने अपने दिल का टुकड़ा सौंप दिया हो।“
आज जब हम मीना कुमारी को याद करते हैं, तो सिर्फ़ एक अभिनेत्री नहीं, बल्कि एक शायरा भी ज़हन में आती हैं — जो दर्द को अल्फ़ाज़ देती थीं, और अल्फ़ाज़ को अमर कर गईं। उनकी शायरी उनकी आत्मा की गवाही है, और गुलज़ार साहब की बदौलत वो आवाज़ अब भी गूंज रही है।
जब मीना कुमारी को देखकर फिराक ने छोड़ दिया था मुशायरा…
मीना कुमारी को फिल्म इंडस्ट्री में ‘ट्रेजेडी क्वीन’ का दर्जा मिला। फिल्मों के साथ-साथ असल जिंदगी में भी उनके साथ कई दु:खद हादसे हुए। जाने-माने उर्दू शायर फ़िराक़ गोरखपुरी ने एक बार मुशायरा छोड़ दिया था, क्योंकि उन्होंने देखा कि उसमें अभिनेत्री मीरा कुमारी शामिल हो रही हैं। उनका कहना था कि मुशायरे सिर्फ शायरों की जगह हैं। यह वाकया 1959-1960 का है, जब फ़िराक़ गोरखपुरी को एक मुशायरे में आमंत्रित किया गया था। फ़िराक़ गोरखपुरी का असली नाम रघुपति सहाय था। ‘फिराक गोरखपुरी: द पोयट ऑफ पेन एंड एक्सटैसी’ नामक पुस्तक में इस वाकये का जिक्र किया गया है। फ़िराक़ की इस जीवनी के लेखक उनके रिश्तेदार अजय मानसिंह थे।
जब फिराक मुशायरे में पहुंचे तो उनका तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्वागत किया गया और मुशायरे की शुरूआत पूरे जोशो-खरोस के साथ हुई. करीब एक घंटे के बाद वहां ऐलान किया गया कि मौके पर अदाकारा मीना कुमारी पहुंच चुकी हैं.
मुशायरे में शामिल लोग शायरों को मंच पर छोड़कर मीना कुमारी की एक झलक पाने के लिए भागे. इससे नाराज फिराक ने मौके से जाने का फैसला किया और उस समय आयोजक उन्हें मनाने की कोशिश में जुट गए.
मीना कुमारी ने भी शर्मिंदगी महसूस की और फिराक से बार-बार गुजारिश की कि वह रूकें. मीना कुमारी ने उनसे कहा, ‘‘जनाब, मैं आपको सुनने के लिए आई हूं.’’
फिराक ने इस पर तुरंत जवाब दिया, ‘‘मुशायरा मुजरा बन चुका है. मैं ऐसी महफिल से ताल्लुक नहीं रखता.’’ इसके एक दिन बार फिराक ने कहा, ‘‘मैं मीना कुमारी की वजह से वहां से नहीं हटा था. आयोजकों और दर्शकों के व्यवहार के कारण वहां से हटा जिन्होंने हमारी बेइज्जती की थी.’’
उनकी दलील दी थी, ‘‘मुशायरा शायरी का मंच है. यहां के कलाकार सिर्फ शायर होते हैं और यहां की व्यवस्था में एक पदानुक्रम होता है जिसका पालन किया जाना चाहिए.’’
मीना कुमारी की वसीयत में था यह सब
ताजदार अमरोही के मुताबिक, मीना कुमारी और उनके बाबा कमल अमरोही का कभी तलाक नहीं हुआ था। इसीलिए उन्हें मझगांव के रहमताबाद कब्रिस्तान में दफनाया गया, जहां अमरोही परिवार के पूर्वज हैं। लेकिन उनके बाबा को विलेन बना दिया गया। मीना कुमारी की मौत के 40 दिन बाद उनकी वसीयत मिली थी, जिसमें कहा गया था कि उनका कुछ सामान शिया अनाथालय, मस्जिद और विधवाओं को दिया जाए।
मीना कुमारी संग सौतेले बेटे ताजदार अमरोही का बॉन्ड
ताजदार अमरोही सौतेली मां मीना कुमारी को छोटी अम्मी कहकर बुलाते थे। उन्होंने बताया था कि मीना कुमारी उन्हें बेहद प्यार करती थीं। वह उन्हें अपने और बाबा कमल अमरोही के बीच सुलाती थीं। जब ताजदार अमरोही को देहरादून में बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया, तो वहां भी मीना कुमारी उन्हें चिट्ठियां और चॉकलेट भेजतीं।
ताजदार अमरोही ने साल 2015 में ‘फिल्मफेयर’ को दिए इंटरव्यू में बताया था कि छोटी अम्मी Meena Kumari के आखिरी दिन कैसे रहे थे। किस तरह वह उनके पिता Kamal Amrohi से माफी मांगती रहीं। ताजदार अमरोही ने उन शर्तों के बारे में भी बताया था जो उनके बाबा ने छोटी अम्मी मीना कुमारी से निकाह करने के दौरान रखी थीं। लेकिन वही शर्तें उनके रिश्ते में खाई की वजह बनीं।
मीना कुमारी के आख़िरी कुछ साल, तबीयत और मृत्यु का कारण
मीना कुमारी के जीवन के अंतिम वर्ष बेहद दर्दनाक और अकेलेपन से भरे हुए थे। 1960 के दशक के उत्तरार्ध में उनकी सेहत तेजी से बिगड़ने लगी थी। उनकी ज़िंदगी में नाकाम मोहब्बतें, टूटा हुआ वैवाहिक जीवन (कमाल अमरोही से अलगाव), और भावनात्मक अकेलापन उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल रहे थे।
मीना कुमारी को लीवर सिरोसिस (liver cirrhosis) नामक गंभीर बीमारी थी, जिसका मुख्य कारण उनका अत्यधिक शराब सेवन था। वे भावनात्मक दर्द और तनाव से उबरने के लिए शराब की ओर मुड़ गई थीं। उनकी इस आदत ने धीरे-धीरे उनके लीवर को नष्ट कर दिया। आख़िरी समय में उनका इलाज लंदन में भी करवाया गया था, लेकिन विशेष लाभ नहीं हुआ।
मीना कुमारी की बहन खुर्शीद को 26 नंबर कमरे से चीख सुनाई दी। वो बहन के कमरे तक भागी। मीना कुमारी ने बड़ी बहन से कहा ‘आपा मैं मरना नहीं चाहती। मुझे बचा लो’। खुर्शीद ने बहन को बाहों में लिया ही था कि उनका सिर दूसरी तरफ झुक गया। वो कोमा में जा चुकी थीं। उनकी अंतिम फिल्म “पाकीज़ा“ (1972) के रिलीज़ के कुछ ही हफ्तों बाद, 31 मार्च 1972 को, मीना कुमारी का निधन हो गया। उस समय उनकी उम्र मात्र 39 वर्ष थी। उनकी मौत ने पूरे फिल्म जगत को स्तब्ध कर दिया और वे हमेशा के लिए “ट्रेजेडी क्वीन” के नाम से अमर हो गईं।
उनका जीवन एक ऐसी कविता की तरह था जो अधूरी रह गई — जिसमें दर्द, प्यार, और बेमिसाल प्रतिभा की गूंज आज भी सुनाई देती है।
मुमताज ने ही क्यों खरीदा था मीना कुमारी का आलीशान घर?
मीना कुमारी के निधन के बाद उनका आलीशान घर बिकने को आया। यह घर उनके जीवन के उतार-चढ़ाव और अकेलेपन का गवाह था। अभिनेत्री मुमताज़, जो मीना कुमारी से बेहद प्रभावित थीं, ने उस घर को खरीदा, ताकि मीना जी की यादें और विरासत सहेजी जा सकें। मुमताज़ का यह कदम सिर्फ संपत्ति खरीदने का नहीं, बल्कि एक कलाकार को श्रद्धांजलि देने का भावनात्मक निर्णय था। उन्होंने कहा था कि यह घर उन्हें मीना कुमारी की आत्मा के करीब लाता है, और वह इसे एक स्मृति के रूप में संजोकर रखना चाहती हैं।
मीना कुमारी की भारतीय सिनेमा पर छाप और दिग्गज कलाकारों की राय
मीना कुमारी भारतीय सिनेमा की एक ऐसी त्रासदी भरी प्रतिभा थीं, जिन्होंने अपने भावपूर्ण अभिनय, संवेदनशीलता और शायरी से हिन्दी फिल्म उद्योग में अमिट छाप छोड़ी। उन्हें ‘ट्रेजेडी क्वीन’ कहा गया, लेकिन उनका अभिनय केवल दुख तक सीमित नहीं था — वे गहन भावनाओं की अभिव्यक्ति, स्त्री के अंतर्द्वंद और आत्मा की पीड़ा को परदे पर जीवंत कर देती थीं।
मीना कुमारी ने भारतीय सिनेमा को एक नया दृष्टिकोण दिया — जहाँ अभिनेत्री केवल सौंदर्य या नृत्य तक सीमित नहीं रही, बल्कि भावनात्मक गहराई और मानसिक जटिलता को भी परदे पर प्रस्तुत करने लगी। ‘पाकीज़ा’, ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’, ‘बैजू बावरा’, ‘दिल एक मंदिर’, जैसी फिल्मों में उनका अभिनय आज भी अभिनय की पाठशाला माना जाता है।
दिग्गज कलाकारों की राय
दिलीप कुमार ने कहा था, “मीना एक ऐसी कलाकार थीं, जो हर दृश्य को कविता बना देती थीं। उनके अभिनय में दर्द भी सुंदर लगता था।”
गुरु दत्त जिन्हें मीना कुमारी ने ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ में अद्भुत समर्थन दिया, ने कहा था – “उनके जैसा समर्पण और कैमरे की समझ बहुत कम लोगों में होती है।”
राजकुमार ने उनके साथ काम करने के बाद कहा था, “मीना जी के सामने डायलॉग बोलते हुए भी डर लगता था कि वो कहीं नज़रों से ही सारा सीन न चुरा लें।”
नर्गिस ने मीना कुमारी को “महसूस करने वाली अभिनेत्री” कहा था – “वे किरदार में घुल जाती थीं, उनका दर्द और सच्चाई दर्शकों को झकझोर देती थी।”
आज की अभिनेत्रियाँ जैसे विद्या बालन, तब्बू और काजोल, मीना कुमारी को अपनी प्रेरणा मानती हैं। विद्या बालन ने एक बार कहा, “मीना जी जैसी गहराई और नज़ाकत लाना आज भी चुनौती है।”
मीना कुमारी ने अभिनय को आत्मा की भाषा बनाया। उन्होंने अभिनय को सिर्फ एक कला नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार बना दिया। उनका असर आज भी सिनेमाई दुनिया में महसूस किया जाता है — हर उस दृश्य में जहाँ दर्द, प्रेम और नारी की मजबूती की झलक मिलती है।
सम्मान और पुरस्कार
वर्ष 1962 मीना कुमारी के सिनेमा कॅरियर का अहम पड़ाव साबित हुआ। इस वर्ष उनकी ‘आरती’, ‘मैं चुप रहूंगी’ जैसी फ़िल्में प्रदर्शित हुईं। इसके साथ ही इन फ़िल्मों के लिए वे सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के ‘फ़िल्मफेयर’ पुरस्कार के लिए नामित की गईं। यह ‘फ़िल्मफेयर’ के इतिहास में पहला ऐसा मौक़ा था, जहाँ एक अभिनेत्री को ‘फ़िल्मफेयर’ के तीन वर्गों में नामित किया गया था।
सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का ‘फ़िल्मफेयर‘ पुरस्कार
मीना कुमारी को मिले सम्मानों की चर्चा की जाए तो उन्हें अपने अभिनय के लिए चार बार ‘फ़िल्मफेयर’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मीना कुमारी को सबसे पहले वर्ष 1953 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘परिणीता’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का ‘फ़िल्मफेयर’ पुरस्कार दिया गया। इसके बाद वर्ष 1954 में भी फ़िल्म ‘बैजू बावरा’ के लिए उन्हें ‘फ़िल्मफेयर’ के सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद मीना कुमारी को ‘फ़िल्मफेयर’ पुरस्कार के लिए लगभग 8 वर्षों तक इंतज़ार करना पड़ा और वर्ष 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ के लिए उन्हें ‘फ़िल्मफेयर’ मिला। इसके बाद वर्ष 1966 में फ़िल्म ‘काजल’ के लिए भी मीना कुमारी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के ‘फ़िल्मफेयर’ पुरस्कार से सम्मानित की गईं।
नागपुर फ़िल्म सोसाइटी की ओर से अद्भुत अदाकारा मीना कुमारी को जन्मदिन पर श्रद्धांजलि। आपकी भावपूर्ण अभिनय कला ने हिंदी सिनेमा को संवेदना और गहराई दी। आप आज भी हमारे दिलों में जीवित हैं
सन्दर्भ: जागरण,News 18 हिंदी,भारतकोश,पंजाब केसरी,अमर उजाला,नवभारतटाइम्स.कॉम,BBC,Meena Kumari the Classic Biography by Vinod Mehta,NDTV.in
Author Bio: Dinesh Dhawane
Dinesh Dhawane is a publisher, author, bibliophile, paleo-botanist, and passionate film critic. He has authored numerous professional books for universities and colleges, contributing significantly to academic literature. A dedicated collector of rare books, he owns one of the largest personal libraries in the country.
An avid cinema enthusiast, Dinesh is widely regarded as an authority on film history and personalities. He serves as a Core Committee Member of both the Nagpur Book Club and the Nagpur Film Society, actively promoting literary and cinematic culture.
Very nice article on Meenakumari.